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डाउनलोड करेंजब विपत्ति आती है तो चारों तरफ से आती है। कोई उसमें फंसकर रह जाता है तो कोई निखरकर आता है। जो इन हालातों में तपकर बाहर निकलता है, कहानी उसकी बनती है। ऐसी ही कहानी है...बिहार की एक छोटे से गांव की लड़की की।
21 साल की उम्र में ही उसने दुखों का पहाड़ देखा। लेकिन हालात से भागी नहीं। गिरी, लड़ी, संभली और फिर सफलता का स्वाद भी चखा। आज ‘ये मैं हूं’ में बात सोशल एक्टिविस्ट, डॉक्यूमेंट्री डायरेक्टर, सिनेमैटोग्राफर यानी मल्टी टैलेंटेट प्रियस्वरा भारती की। गांव से शहर और शहर से देशभर में अपनी पहचान बनाने की कहानी उनके ही लफ्जों में।
पापा के एक्सीडेंट ने गांव से शहर पहुंचाया
मैं बिहार के गोपालगंज जिले से हूं। घर में मां-पापा के अलावा हम चार भाई-बहन थे। लेकिन अब सिर्फ तीन हैं। मेरे मम्मी-पापा दोनों ही प्राइवेट टीचर थे। जब मैं 9 साल की थी तो एक दिन पापा का एक्सीडेंट हो गया। और उसके बाद हमारी दुनिया बदल सी गई। गांव में हम सारे भाई-बहन सरकारी स्कूल में पढ़ते थे, पर पापा की एक्सीडेंट की वजह से सब ठप्प हो गया। शुरुआत के छह महीने मां पापा के साथ इलाज के लिए पटना में रहीं, लेकिन वो इतना लंबा चला कि हम सब पटना चल गए। फिर तीन साल पीएमसीएच के कॉटेज में बिना पढ़ाई के बिताया। हम सबकी पढ़ाई छूट चुकी थी। पापा दोबारा काम करने की स्थिति में कभी नहीं आए। अस्पताल का खर्च, हमारी पढ़ाई…पटना में जिंदगी बहुत मुश्किल हो गई। कॉटेज से निकलने के बाद हमने जैसे-तैसे एक रूम लिया, जहां हम सब भाई-बहन पापा के साथ रहते। और खर्च के लिए मां गांव जाकर काम करती थीं।
किलकारी से जुड़ना किस्मत बदलने जैसा था
मैं अपनी भाई-बहन की तुलना में काफी एक्टिव रही हूं। साल 2014 से मैंने घर चलाने के लिए होम ट्यूशन लेना शुरू कर दिया। मैं इतना काम लेती थी कि घर का राशन खरीद सकूं। इस वजह से घरवालों का भरोसा भी मुझे पर बना। बाहर के किसी भी काम के लिए मुझे भरोसेमंद माना जाता था। फाइनेंशियल क्राइसिस की वजह से हमारी पढ़ाई कायदे से नहीं हुई। हमारा एडमिशन होता फिर एक साल बाद या छह महीने बाद स्कूल छोड़ना पड़ता। ये चलते रहते था। इसी दौरान मैं किलकारी संस्था से जुड़ी। यहां हर तरीके की एक्सट्रा एक्टिविटी होती थी। इससे जुड़ने के बाद मेरी रुचि साइंस प्रोजेक्ट की तरफ बढ़ी। साल 2013 में किलकारी, यूनिसेफ बिहार की तरफ से बाल नीति के लिए 20 बच्चों को चुना गया। उन बच्चों में मैं भी थी। ये मेरी लाइफ का पहला एक्सपोजर था। पहली बार मेरी समझ सोशल इशू को लेकर बनी।
बच्चों को उनका अधिकार पता हो इसलिए बनाई संंस्था
किलकारी और यूनिसेफ के साथ काम करके मेरी समझ चाइल्ड राइट्स को लेकर बनी। साल 2018 में मैंने ‘बिहार यूथ फॉर चाइल्ड राइट्स’ संस्था की शुरुआत की। इसके जरिए मैं और मेरी टीम बिहार के हर जिले में जाकर बाल विवाह, वुमन हेल्थ, सेक्शुअल एंड रिप्रोडक्टिव हेल्थ, जेंडर इक्वालिटी पर लोगों को शिक्षित करते हैं। इसके अलावा हमारी टीम यूनिसेफ बिहार के लिए वॉलंटियर भी करती है। हालांकि इस काम में भी काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। एक तो उम्र छोटी, ऊपर से जिस मुद्दे पर मैं काम करती हूं वो लोगों की नजर में टैबू है। ऐसे में वर्कशॉप के लिए लोगों को समझाना बहुत मुश्किल हो जाता है। फिलहाल में यूनिसेफ के एडवाइजरी बोर्ड- युवा यंग पीपल एक्शन टीम का हिस्सा हूं।
कोरोना की पहली लहर के दौरान छोटी बहन को खो दिया
मेरी छोटी बहन पढ़ाई में काफी अच्छी थी। बहुत कम उम्र में ही उसने लिखा शुरु कर दिया था। जो कि अलग-अलग जगहों पर छपते रहे। उसे लिखने के लिए राष्ट्रपति से ‘बालश्री’ सम्मान मिल चुका था। कोरोना की पहली लहर के दौरान वो अचानक बीमार हुई। कोविड की वजह से नॉर्मल पेशेंट को अस्पताल वाले एडमिट नहीं कर रहे थे। हमें पता भी नहीं चला कब कैसे क्या हुआ। चीजें जब तक समझ में आती, समय हाथ से निकल चुका था। महज 13 साल की उम्र में ही हमने उसे खो दिया।
बहन की मौत ने मां को भी हमसे छीन लिया
मेरी छोटी बहन मां की लाड़ली थी। बहन की मौत ने पूरे परिवार को हिला दिया था लेकिन मां के लिए ज्यादा मुश्किल रहा। वो सदमा झेल नहीं पाईं। एक साल के अंदर ही उनकी भी मौत हो गई। मां के साथ जब ऐसा हुआ, उस वक्त मेरा चयन गोवा में आयोजित इंटरनेशनल साइंस फिल्म फेस्टिवल के लिए हुआ था। मैं रास्ते में थीं, जब पता चला कि मां का ब्रेन हैमरेज हो गया है और वो नहीं रहीं।
FTI फिल्म मेकिंग वर्कशॉप से डायेरक्शन में बढ़ी दिलचस्पी
फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट (FTI) ने किलकारी के साथ मिलकर बिहार में 10 दिन का वर्कशॉप कराया। ये वर्कशॉप फ्री में था और मैं उसका हिस्सा रही। यहां से मेरी दिलचस्पी फिल्म मेकिंग और सिनेमेटोग्राफी की तरफ बढ़ी। फिर मैंने साल 2018 में नेशनल साइंस फिल्म फेस्टिवल के लिए अपनी छोटी बहन प्रियंतारा के साथ मिलकर ‘जेलोटलॉजी’ डॉक्यूमेंट्री बनाई। हंसी और ह्यूमर के पीछे क्या साइंस काम करता है, इसे हमने दिखाया। इस फिल्म को 9वें नेशनल साइंस फिल्म फेस्टिवल में स्पेशल जूरी अवॉर्ड मिला। फिर 2019 में जब पूरा पटना बाढ़ के पानी में डूबा था। मैं भी अपने घर में फंसी हुई थी। मैंने उस पूरे माजरे को फोन से रिकॉर्ड किया और उसपर डॉक्यूमेंट्री बनाई। डॉक्यूमेंट्री का नाम था ‘द अननॉन सिटी, माई ओन सिटी फ्लडेड‘। इसे भी कला और फिल्म फेस्टिवल में स्पेशल जूरी अवॉर्ड से सम्मानित किया गया है। 2018 के बाद से मैं लगातार नेशनल साइंस फिल्म फेस्टिवल के लिए डॉक्यूमेंट्री बना रही हूं। मेरी डॉक्यूमेंट्री फिल्म नेशनल और इंटरनेशनल दोनों ही फिल्म फेस्टिवल में 2018-19 से लगातार नॉमिनेशन मिल रहा है।
फिलहाल मैं कुछ बड़े प्रोजेक्ट में बतौर अस्टिटेंट डायरेक्टर काम कर रही हूं। इनमें से एक फिल्म बिहार से जुड़े मुद्दे पर है और इसकी शूटिंग भी बिहार में हो रही है।
काम को लेकर निरंतरता मेरी सफलता का राज है
जीवन में अब तक चाहे जितना भी संघर्ष रहा हो। मैंने अपने काम से कभी समझौता नहीं किया है। मैंने सबसे पहले अपना फोकस तय किया कि मुझे करना क्या है। जवाब मिला सोशल वर्क और फिल्म मेकिंग। घर का और अपना खर्च चला सकूं इसके लिए मैंने अलग-अलग काम किए और साथ में अपने पैशन भी फॉलो किया। वो भी बिना किसी ब्रेक के। मुझे काम करने के लिए कभी भी मौके की जरूरत नहीं होती है। इसके अलावा मुझे ये भी लगता है कि मौके खुद बनाना होता है। बिहार में भी बहुत काम है, बस आपको रास्ता बनाना होगा। मैं काम को लेकर देश-दुनिया हर जगह को एक्सप्लोर करूंगी लेकिन मेरा परमानेंट पता बिहार ही रहेगा।
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