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डाउनलोड करें‘किसी काम को करने की कोई उम्र नहीं होती। मैंने 40 की उम्र में फिल्में बनाना शुरू किया। पहली ही फिल्म पर इतना अच्छा रिस्पॉन्स मिला कि मैंने फिर मुड़कर नहीं देखा और अब फिल्मों का ऐसा चस्का लगा है कि मन करता है रोज एक फिल्म बनाऊं।’ ये जुनून और जज्बे से भरे शब्द हैं 59 साल की फिल्म डायरेक्टर और लेखक दुर्बा सहाय के। भास्कर वुमन से खास बातचीत में दुर्बा कहती हैं,'मुझे बचपन से पढ़ने लिखने का शौक था। स्कूल में थी तब प्रेमचंद के गोदान, गबन, निर्मला जैसे उपन्यास चाट डाले थे। निबन्ध लिखना, डांस करना, गीत गाना ये सब चलता रहता था। मेरी ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई मेरी जन्मस्थली बिहार में ही हुई। घर में पढ़ने-लिखने का माहौल मिला। कोई भी कहानी पढ़ती तो उसके बाद नई कहानी लिखने का मन करता। इस तरह मैंने कई कहानियां लिखीं। कुछ कहानियां हंस पत्रिका में छपीं। मेरी पहली कहानी हिंदुस्तान अखबार में छपी और तब 54 चिट्ठियां मेरे नाम से मेरे घर पर आई थीं। लेखन में मुझे हमेशा सभी का प्यार मिला।
शादी के बाद पति भी पढ़ाकू मिले
19 साल की थी जब शादी हो गई, लेकिन किताबें पढ़ने का सिलसिला कभी नहीं रुका। ससुराल में आने के बाद पति भी पढ़ाकू मिले और अभी वे एक बड़ी हिंदी पत्रिका के संपादक हैं। पति संपादक बेशक हैं, लेकिन मेरी कहानियां नहीं छापते, हा हा हा...उन्हें भी पढ़ने-लिखने का बहुत शौक है। जब दो पढ़ाकू मिले तो रिलेशनशिप गोल, शाम के वक्त साथ बैठकर किताबें पढ़ना और उस पर चर्चा कर लेखन करना हो गया। जब तक बीए किया तब तक दो बच्चे हो चुके थे। पढ़ते-पढ़ते लेखन भी शुरू कर दिया और रफ्तार नाम की शाॅर्ट स्टोरीज की बुक लिखी।
अब तक 6 फिल्में बना चुकी हूं
करीब 20 साल घर संभालते-संभालते एक दिन फिल्म बनाने का भी मौका मिला। हम दोनों पति-पत्नी ने मिलकर 'पतंग' बनाई जिसमें ओम पुरी, शबाना आजमी, शत्रुघ्न सिन्हा जैसे एक्टर थे। इस फिल्म पर हमें सिल्वर लोटस नेशनल अवॉर्ड मिला। इस बड़ी फिल्म के बाद इतनी सराहना मिली कि मैंने अगली फिल्म अकेले बनाई जिसका नाम ‘द पेन’ रखा। ये एक शार्ट फिल्म है। इसे 2011 में कान्स डी फिल्म फेस्टिवल में भी दिखाया गया। इसके बाद मैंने ‘एन अननोन गेस्ट’ शार्ट फिल्म बनाई। अब फिल्में बनाने का चस्का लग गया। फिर, मैंने ‘पेटल्स’ बनाई। यह फिल्म भी कान्स डी फेस्टिवल में दिखाई गई। अब तक 6 फिल्में बना चुकी हूं।
बहुत बार लोगों का जब फिल्मों पर रिस्पॉन्स आता है तब मालूम पड़ता है कि आपकी फिल्में किसी पर कैसा प्रभाव डालती हैं। कई शाॅर्ट फिल्में बनाने के बाद बड़ी ‘आवर्तन’ बनाई जो एक लंबी फिल्म बनी। दिल्ली के हैबिटेट सेंटर में जब आवर्तन दिखाई गई तो बाहर निकलने पर ऑडियंस ने मुझे घेर लिया। इतना प्यार मिला कि घर आकर फिर से लिखना चालू किया।
हाउस वाइफ रहते हुए लेखन और फिल्म बनाना चालू रखा
हाउस वाइफ होते हुए भी मैंने अपना लेखन और फिल्म बनाने का काम जारी रखा। जब बच्चे छोटे थे तब थोड़ी मुश्किलें आईं, लेकिन परिवार के सपोर्ट से वो भी पल गए। आज मेरी दोनों बेटियां बड़ी हो गई हैं। उनके भी बच्चे हैं। मैं आज भी खुद को हाउस वाइफ ही कहती हूं और ये बोलने में मुझे कोई शर्म नहीं है।
परिवार साथ दे तो महिलाएं कुछ भी कर सकती हैं
पढ़ते-पढ़ते लिखना सीखा और फिर फिल्म बनाना भी। फिल्म बनाने की कहीं कोई ट्रेनिंग नहीं ली। अब यह काम मुंह लग गया है। ये रुकने वाला नहीं है। फिल्में बनाते हुए गया में ही कम्युनिटी सेंटर खोला। यह एक कल्चरल सेंटर है। मेरे हसबैंड अच्छे कुक हैं। वो भी अच्छा लिखते हैं। बिजनेस संभालते हैं। तो उन्हें देखकर मुझे प्रेरणा मिलती है कि जब मेरे पति इतना कर सकते हैं तो मैं क्यों नहीं कर सकती। अब मैं हर महिला को यही कहूंगी कि अगर परिवार उनका साथ दे तो वे कुछ भी कर सकती हैं। सारी जमीन और आसमान उनका होगा।
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