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जब तुरही की तान पर भड़की थी ग्रीक क्रांति:भारत में बने एक गाने ने वियतनाम वॉर में लोगों को एकजुट किया

नई दिल्ली9 महीने पहलेलेखक: भारती द्विवेदी
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कहा जाता है कि हिंदुस्तानी क्लासिकल गायक तानसेन जब ‘राग दीपक’ गाते थे, तब दीए अपने आप ही जल उठते। ‘राग मल्हार’ गाते तो बारिश होने लगती। तानसेन अकबर के दरबार के नवरत्नों में से एक थे। ठीक उसी समय एक और संगीतकार हुए- बैजू बावरा। कहते हैं कि वह जब ध्रुपद गाते तो पत्थर तक पिघल जाते। इन दोनों ने संगीत की दुनिया में ऐसी लकीर खींची कि आज भी भारत में संगीत की कोई बात इनका नाम लिए बिना पूरी नहीं होती।

आपके साथ भी ऐसा हुआ होगा कि कोई गाना सुनते-सुनते जब आप अचानक रो पड़े हों? या मन बहुत उदास हो, लेकिन किसी एक गाने से मूड अच्छा हो गया हो? अगर हां…तो ये मानकर चलिए कि म्यूजिक आपकी भावनाओं को अच्छे से समझता है। म्यूजिक आपके मूड को कंट्रोल करने की भी ताकत रखता है। संगीत आपको रुला सकता है, हंसा सकता है और झूमने पर मजबूर भी कर सकता है।

पहला म्यूजिकल साज़ कुदरत या इंसान की आवाज

माना जाता है कि म्यूजिक की शुरुआत नैचुरल साउंड और रिदम से हुई। जैसे- चिड़ियों का चहचहाना, झरने और नदी की आवाज, एक धातु का दूसरे से टकराने, खोखले-सूखे तने से गुजरती हवा या पकी हुई फसलों से हवा के टकराने पर पैदा होने वाली आवाज। इन्हीं सारी चीजों को सुन और समझकर से प्रेरित होकर इंसान ने म्यूजिक बनाना शुरू किया। जैसे कि चुटकी और ताली का बजाना।

‘साहित्यसङ्गीतकलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः’ मतलब साहित्य, संगीत और कला के बिना इंसान बिना सींग और पूंछ वाला पशु है- भृतहरि

भारतीय परम्परा में संगीत को ईश्वर से जुड़ने का साधन समझा जाता है यानी ‘सा कला या विमुक्तये’। पश्चिम में ये संगीत खालिस आनंद की चीज समझी जाती है।

1630 में म्यूजिक शब्द पहली बार प्रयोग में आया

भारतीय मान्यताओं के अनुसार संगीत की शुरुआत शिव के डमरू, देवी सरस्वती की वीणा से मानी जाती है। संगीत का पहला प्रमाण ‘सामवेद’ में मिलता है। ‘सामवेद’ 2000 ईसा पूर्व में लिखा गया, जिसमें गाए जाने वाले मंत्रों का संकलन है। सिंधु घाटी सभ्यता में भी कांसे की नर्तकी की मूर्ति मिली। इससे पता चलता है कि 5000 साल पहले भी हमारा गीत-संगीत समृद्ध हो चुका था। बाद में भरतमुनि ने ‘नाट्यशास्त्र’ लिखा। इसमें संगीत की व्याख्या है। इसे ‘पंचम वेद’ भी कहा जाता है। सल्तनत काल और मुगल काल के दौरान भारतीय संगीत काफी फला-फूला। यही वो वक्त था तानसेन, बैजू बावरा, स्वामी हरिदास, हरिराम व्यास, बिसराम खान और गुणसमुद्र जैसे संगीतकार हुए।

आइए जान लेते हैं कि दुनिया की प्रसिद्ध संगीत शैलियां क्या है?

आइए अब जानते हैं, दूसरे विश्व युद्ध के दौर के तानाशाह मुसोलिनी और भारत के शास्त्रीय संगीत से जुड़े एक किस्से के बारे में…

लोगों की नींद उड़ाने वाला तानाशाह मुसोलिनी 'राग पूर्वी' सुन सो गया

इटली के तानाशाह मुसोलिनी और भारतीय संगीत से जुड़ा एक किस्सा काफी मशहूर है। बात साल 1933 की है। कहा जाता है मुसोलिनी अचानक इन्सोम्निया से पीड़ित हो गया। उसे नींद ही नहीं आती थी। काफी इलाज के बाद भी कुछ असर नहीं हुआ। उसकी कई प्रेमिकाओं में से एक बंगाली महिला ने उसे भारतीय संगीत के बारे में बताया।

तब भारतीय शास्त्रीय गायक पंडित ओमकारनाथ ठाकुर यूरोप के टूर पर थे। वह पहले भारतीय संगीतकार थे, जिन्होंने यूरोप में शास्त्रीय गायन की प्रस्तुति दी थी। जब ठाकुर रोम पहुंचे तो मुसोलिनी की बंगाली प्रेमिका उनसे मिली, मदद मांगी और उन्हें घर बुलाया। जब पंडित ओमकारनाथ वहां पहुंचे तो उन्होंने मुसोलिनी से आग्रह किया कि उस रात वह शाकाहारी खाना खाएं। खाने के बाद पंडित ओमकारनाथ ने 'राग पूर्वी' गाना शुरू किया। 15 मिनट में ही मुसोलिनी को नींद आ गई। वह कई दिनों तक मुसोलिनी के मेहमान रहे। इस दौरान उन्होंने मुसोलिनी को राग ‘छायानट’ सुनाया तो वह रोने लगा था। जाने से पहले पंडित जी को तानाशाह की तरफ से दो चिट्ठियां मिलीं। एक में उन्हें शुक्रिया कहा गया था, तो दूसरे पत्र में अपने विश्वविद्यालय में संगीत निदेशक बनने का नियुक्ति पत्र था। हालांकि, पंडित ओमकारनाथ ने उस प्रस्ताव को विनम्रता से ठुकरा दिया और भारत लौट आए।

महिलाओं का गाया लोकगीत, जो दुनिया भर में बना क्रांति का प्रतीक

इटली में धान के खेतों में काम करने वाली महिलाएं एक लोकगीत गुनगुनाया करती थीं। उस लोकगीत में उनके दर्द का जिक्र था। दर्द से बाहर आने की हिम्मत बंधाती पंक्तियां थीं। जमींदार के शोषण, काम से जुड़ी चुनौतियों को महिलाओं ने अपने गीतों में बुना। दूसरे विश्व युद्ध में महिलाओं का गाया ये गाना कुछ बदलाव के बाद इटैलियन क्रांति का प्रतीक बन गया। तानाशाह मुसोलिनी के खिलाफ ये लोकगीत विरोध का स्वर बनकर उभऱा। मुसोलिनी के खिलाफ मिली सफलता के बाद ये लोकगीत दुनिया भर में दमनकारी सत्ता और ताकत के विरोध का प्रतीक बना। साल 2017 में नेटफ्लिक्स की चर्चित सीरीज ‘मनी हाइस्ट’ में इस गाने- ‘बेला चाऊ’ का इस्तेमाल किया गया, यह दुनिया भर के युवाओं के बीच काफी लोकप्रिय हुआ। अब इस गाने का इंडियन वर्जन भी आ चुका है।

मतलब पता नहीं होता फिर भी थिरकने लगते हैं पैर

‘बेला चाऊ’ हो, ‘ब्राजील’ या फिर ‘कोलावरी डी’ ऐसे गानों पर आपके पैर भी कभी न कभी थिरके होंगे। अलग-अलग भाषा और बोली के कुछ गाने, जो दुनिया भर में पॉपुलर हुए, लोगों को उन पर नाचते देखा गया। इन गानों पर लोग थिरके पहले, उसका मतलब बाद में ढूंढना शुरू किया। ऐसा इसलिए क्योंकि म्यूजिक की कोई भाषा, कोई धर्म और सीमा नहीं होती।

साल 2020 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी की एक रिसर्च में ये बात सामने आई कि म्यूजिक में यूनीक कोड और पैटर्न का एक सेट होता है। जो यूनिवर्सल होता है। यानी दुनिया भर में म्यूजिक कमोबेश एक ही तरीके से तैयार होता है। इसलिए गाने के बोल भले ही हमें समझ न आएं, म्यूजिक पहले लुभा लेता है। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के विज्ञान विभाग ने इस रिसर्च पर काम किया था और इस रिसर्च का नाम था 'यूनिवर्सलिटी एंड डाइर्वसिटी इन ह्यूमन सॉन्ग।'

जब ग्रीक क्रांति का सिंबल बन गया ट्रम्पेट या तुरही

आप क्लासिकल या जैज़ म्यूज़िक में इस्तेमाल होने वाले इंस्ट्रूमेंट ‘ट्रम्पेट’ यानी तुरही से जरूर वाक़िफ़ होंगे। अगर नहीं सुना तो कोई बात नहीं। गांव या शहर की हर शादी में बैंड और ऑर्केस्ट्रा वाले इसे खूब बजाते हैं। 1821 में हुई ‘ग्रीक क्रांति’ के दौरान ऑटोमन साम्राज्य के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए उस समय लोगों को एकजुट करने और उनमें जोश भरने के लिए तुरही का इस्तेमाल किया गया। वहीं चेक रिपब्लिक में राष्ट्रवादी लोगों ने प्रोपगेंडा फैलाने में इसका इस्तेमाल किया।

बीटल्स ने भारत में रहकर लिखा राजनीतिक क्रांति गाना 'रेवोल्यूशन'

1968 में दुनिया भर के अलग-अलग देशों में राजनीतिक उथल-पुथल मची थी। एक तरफ वियतनाम वॉर, चाइनीज कल्चरल रेव्यूलेशन शुरू हो चुका था, तो दूसरी तरफ लंदन में दंगे हो रहे थे। पेरिस में भी गृहयुद्ध जैसे हालात थे। ऐसे माहौल में इंग्लिश बैंड ‘द बीटल्स’ का ग्रुप उस वक्त मेडिटेशन के लिए भारत में था। महर्षि महेश योगी की शरण में जॉन लेनन ने 'रेवोल्यूशन' गाना बनाया। लंदन लौटने के बाद बीटल्स ने इस गाने को रिकॉर्ड किया। इस गाने में सामाजिक बदलावों की पैरवी की गई थी, मगर, ये गाना क्रांति के दौरान होने वाली हिंसा के खिलाफ था।

जूतों के नामी ब्रांड में शामिल नाइकी ने इस गाने को अपने पहले टेलीविजन विज्ञापन में इस्तेमाल किया। ये विज्ञापन खूब पॉपुलर हुआ, जिसके बाद नाइकी की सेल दोगुनी हो गई। बाद में कई दूसरे ब्रांड्स ने भी इस गाने को अपने विज्ञापनों में इस्तेमाल किया।

आपके जीन तय करते हैं कि आप म्यूजिक कितना समझते हैं

ताल (रिदम) केवल एक नहीं, बल्कि सैकड़ों जीन से प्रभावित होता है। ऐसा म्यूजिक रिसर्चर रेयना गॉर्डन मानती हैं। गार्डन ने अपनी रिसर्च में कहा है कि टैपिंग, ताली बजाने के साथ बीट पर झूमना या सब कुछ लय-ताल में करना कुछ इंसान की रगों में होता है।

इस स्टडी में अध्ययनकर्ताओं ने पाया कि बीट सिंक्रोनाइज़ेशन से जुड़े 69 जेनेटिक वेरिएंट्स होते हैं, जिनमें म्यूजिक बीट के साथ तालमेल बिठाने की क्षमता होती है।

जब आरडी बर्मन ने सॉसर टूटने की आवाज़ को धुन बना लिया

संगीतकार आरडी बर्मन बेहतरीन म्यूजिक के अलावा एक्सपीरिमेंट के लिए जाने जाते हैं। कहा जाता है कि वो मानसून के दौरान बारिश की आवाज़ को रिकॉर्ड करने के लिए घंटों खिड़की के पास बैठे रहते। फिर बाद में उस आवाज़ को अपने गीतों में इस्तेमाल करते थे। शर्मिला टैगोर और संजीव कुमार की फिल्म 'चरित्रहीन' का गाना 'तेरी मेरी यारी बड़ी पुरानी', जिसे आशा भोसले ने अपनी आवाज दी है। इस गाने में एक्सपीरिमेंट के तौर पर आरडी बर्मन ने सॉसर (प्लेट) के टूटने की आवाज़ को इस्तेमाल किया था। उन्हें ये आइडिया तब आया, जब एक बार उनके सामने सॉसर गिरकर टूटा। ठीक ऐसे ही फिल्म 'भूत बंगला' का गाना 'प्यार करता जा' में परफेक्ट वैली ईको साउंड के लिए उन्होंने 5 गायकों को एक-दूसरे से दूर जगह पर रखकर गाने को रिकॉर्ड किया। 'शोले' फिल्म में बीयर की खाली बोतल से धुन निकालना हो या 'चुरा लिया है तुमने जो दिल को' गाने की शुरुआत में चम्मच और ग्लास से खनक क्रिएट करने जैसे उनके बेहतरीन एक्सपीरिमेंट रहे।

वर्कप्लेस पर म्यूजिक सुनना ऑफिस निगेटिविटी से दूर रखता है

स्वीडिश म्यूजिक स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म स्पॉटिफाई ने साल 2021 में म्यूजिक को लेकर एक सर्वे कराया। इसके मुताबिक वर्कप्लेस पर 61% लोग अपनी प्रोडक्टिविटी बढ़ाने और खुश रहने के लिए म्यूजिक सुनते हैं। 90 फीसदी लोगों का मानना था कि वे म्यूजिक सुनते हुए बेहतर परफॉर्म करते हैं, जबकि 88 फीसदी ने कहा कि म्यूजिक सुनते हुए टाइम पर अपना काम पूरा करने में कामयाब होते हैं।

ऑफिस में म्यूजिक सुनने के असर पर म्यूजिक इव्यूलेशन कंसल्टेंट और रिसर्चर डॉक्टर एनेली हाके की PhD है।

रिसर्च करने वाली एनेली कहती हैं कि वर्कप्लेस पर म्यूजिक सुनने की सबसे कॉमन वजह मूड ठीक रखना और स्ट्रेस फ्री रहना है। म्यूजिक वर्कप्लेस पर लोगों को ऑफिस के शोरगुल और निगेटिविटी से दूर रखने में मदद करता है और व्यक्ति ज्यादा फोकस्ड होकर काम करता है।

ऑपरेशन थियेटर में शांत रहने के लिए सर्जन सुनते हैं रॉक म्यूजिक

स्पॉटिफाई और हेल्थकेयर प्रोफेशन के लिए बना नॉलेज शेयरिंग ऐप फिगर-1 के एक साझा सर्वे में ये बात सामने आई कि 90 प्रतिशत सर्जन सर्जरी के दौरान संगीत सुनते हैं। ज्यादातर डॉक्टर रॉक म्यूजिक सुनना पसंद करते हैं। रॉक ही क्यों के इस सवाल पर न्यूयॉर्क के हार्ट ट्रांसप्लांट डॉक्टर का कहना था तेज म्यूजिक सुनने से ऑपरेशन थियेटर का माहौल शांत लगता है। सर्वे में एक डॉक्टर का कहना था कि ज्यादातर सर्जरी के दौरान पेशेंट एनेस्थीशिया की वजह से बेहोशी की हालत में होते हैं। लेकिन जब हम महिलाओं का सी-सेक्शन करते हैं, तो वो हमसे म्यूजिक की रिक्वेस्ट करती हैं। कई बार मरीज भी संगीत को लेकर अपनी पसंद बताते हैं, तो हम उनकी मनपसंद संगीत सुनाते हैं।

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत शैली की गायिका डॉ. सुभद्रा देसाई डॉक्टर्स और म्यूजिक के कनेक्शन पर एक किस्सा बताती हैं कि उनकी एक परिचित डॉक्टर हैं, जो दिल्ली के बड़े अस्पताल में काम करती हैं। एक बार ओटी में जाने से पहले उन्होंने बेचैनी होने लगी। उन्होंने मुझे फोन लगाया और ‘जब जानकी नाथ सहाय’ गुनगुनाने को कहा। उस वक्त मैं यूनिवर्सिटी जा रही थी। मैंने कार साइड में खड़ी की और उनके लिए राम का वो भजन गाया, जिसके बाद वो शांत मन से ऑपरेशन थियेटर गईं।

‘वो जो हममे तुममें करार था’, सुनते हुए दिल खोलने वाला डॉक्टर

पटना के हार्ट सर्जन अजीत प्रधान ऑपरेशन थियेटर में सर्जरी के वक्त बेगम अख़्तर, पंडित जसराज, भीम सेन जोशी जैसे कई क्लासिकल सिंगर्स को सुने बिना सर्जरी नहीं शुरू करते। संगीत सुनने के दौरान वो ऑपरेशन पर ज्यादा बेहतरीन तरीके से फोकस कर पाते हैं।

भारतीय संगीत में हर समय के अनुसार बनाया गया राग

सुभद्रा और डॉक्टर अजीत दोनों ही कहते हैं कि शास्त्रीय संगीत में हर समय के लिए राग बनाया गया है। ये वेस्टर्न म्यूजिक में देखने को नहीं मिलता। क्या म्यूजिक सुनने का सही समय होता है या नहीं। इस सवाल पर डॉक्टर अजीत का कहना है कि हर राग का सुनने का तय समय होता है। वहीं सुभद्रा का मानना है कि ये सुनने वालों के मनोस्थिति पर निर्भर करता है। साथ ही किसी भी संगीत का असर एक बार में ही नहीं दिखता। राग को बार-बार सुनना चाहिए औऱ उसे आत्मसात करना चाहिए। अजीत ये भी बताते हैं कि हालांकि ये सिर्फ हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में माना जाता है, जबकि कर्नाटक संगीत कभी भी सुना जा सकता है।

महिलाएं इमोशनल होती हैं इसलिए म्यूजिक उन पर ज्यादा असरदार

‘नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन’ की एक स्टडी की मानें तो संगीत से पुरुषों की तुलना में महिलाएं ज्यादा प्रभावित होती हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि महिलाएं ज्यादा भावुक होती हैं। इसलिए ये कहा जा सकता है कि म्यूजिक पुरुषों की तुलना में महिलाओं में दर्द कम करने में ज्यादा कारगर है। हालांकि, हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत शैली की गायिका डॉ. सुभद्रा देसाई का कहना है कि ऐसा नहीं होता है। संगीत जेंडर के हिसाब से असर नहीं करता। संगीत दोनों पर समान रूप से ही काम करता है। वह कहती हैं, इन सारे पहलुओं पर दुनिया भर में कई रिसर्च जारी है। मेरी एक स्टूडेंट मेलबर्न में ये रिसर्च कर रही है कि संगीत सामान्य बच्चों मैं कैसे असर करता है और ऑटिस्टिक बच्चों पर कैसे असर करता है।

ग्राफिक्स- प्रेरणा झा/ सत्यम परिडा

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