पाएं अपने शहर की ताज़ा ख़बरें और फ्री ई-पेपर
डाउनलोड करें“पोर्ट-ब्लेयर चलोगी?” अनीश के अचानक इस सवाल से मैं अचकचा गई, लेकिन जल्द ही खुद को समेटा – “मेरे इतने अनरोमांटिक पति को इतनी रोमांटिक जगह जाने की क्या सूझी?” “ताकि उसे भी तुम्हारा ‘सागर’ थोड़ा रोमांटिक बना दे और वो तुम्हारी एकमात्र शिकायत दूर कर पाए।” तभी बोलते हुए सविता दीदी कमरे में जा घुसीं। “ओह दीदी, आप भी न” मैं झेंप गई। “तुम्हारे पापा ने प्रॉपर्टी से रिलेटेड कोई काम कहा है, इसलिए मैंने बस तीन दिन की छुट्टी निकाली है, पर मुझे लैप-टॉप पर अपने स्टाफ़ के सम्पर्क में रहना होगा, इसलिए सागर-वागर की ख्वाहिशें पालकर मत चलना।” अनीश अपने चिर-परिचित निर्लिप्त अंदाज़ में बोलते हुए काम पर निकल लिए।
रात भर नींद आंखों में उतर न सकी। बिस्तर की सिलवटों में बचपन से आज तक की उम्र करवटें लेती रही। पापा की तो कोई प्रॉपर्टी नहीं है वहां। पापा वहां से कब के शिफ्ट भी हो चुके। वहां तो शिरीष जी...शिरीष जी...पोर्ट-ब्लेयर जाकर उनसे भी मिल पाऊंगी क्या? ज़रूर मिलूंगी। क्यों नहीं..कैसे दिखते होंगे वो अब?
फ्लाइट में भी मन अतीत के आकाश पर उड़ता ही रहा...पहली बार जब शिरीष जी को देखा था, सात-आठ साल की रही होउंगी। पैरा-ग्लाइडिंग की ज़िद पर अड़ी सबसे रूठी थी कि मेरी ओर पापा के दोस्त ने हाथ बढ़ाया था – “मेरी दोस्त बनोगी?” उन्होंने अपनी मीठी-प्यारी बातों से न केवल मुझे हंसाया था बल्कि जल्द ही पैराग्लाइडिंग कराकर अपना वादा पूरा कर जीवन की सबसे बड़ी खुशी भी दी थी। मैंने भी उन्हें अंकल कहने से मना कर ‘दोस्त’ नाम दिया तो सब हंस पड़े थे।
कई साल मारीशस में वाटर स्पोर्ट्स टीचर का अनुभव लेने के बाद पापा के जिगरी दोस्त शिरीष जी वापस आ गए थे। उन्होंने पोर्ट-ब्लेयर के साथ-साथ कब मेरे दिल में भी जगह बना ली, पता ही नहीं चला। मैं बड़ी होती गई। स्कूल में, कॉलेज में कितने ही हाथ बढ़े, कितने ही लड़कों से दोस्ती हुई पर उन जैसा कोई न था। मेरे दिल में कभी कोई उतर ही न सका क्योंकि वहां जगह ही न थी। ‘दोस्त’ बिल्कुल मेरे जैसे थे। कब हवा में साथ उड़ते हम एक दूसरे के मन की हवाओं की दिशा पहचानने लगे और सागर के तल में साथ उतरे दो खोजियों ने कब एक दूसरे की आत्मा की अतल गहराइयों को नाप लिया, पता ही नहीं चला।
पता तो तब चला जब पापा को सेवा-निवृत्ति मिली। हमें वापस आना था और मेरे आंसू थम नहीं रहे थे। “प्रकृति हर जगह खूबसूरत ही होती है, वहां तुम्हारे पापा का घर है। उसे अपने तरीके से संवारना। मुझे विश्वास है, तुम सागर के बिना रहना सीख जाओगी। फिर कल को तुम्हारी नौकरी होगी, शादी होगी, तो अपनी व्यस्तताएं हो जाएंगीं। तब छुट्टियां बिताने मेरे यहां सपरिवार आया करना और जी लिया करना अपनी ज़िंदगी।” दोस्त ने बड़े प्यार से मेरा चेहरा अपने हाथों में लेकर मेरे आंसू पोंछते हुए कहा तो मेरी हिचक की बेड़ियां टूट गईं। “मैं कहीं नहीं जाऊंगी। मैं आपसे दूर नही रह सकती। प्यार करती हूं आपसे।” कहकर मैं उनसे लिपट गई। जितना उनके संकोची हाथ मुझे छुड़ाने की कोशिश करते मेरी पकड़ उतनी ही मजबूत होती जाती। जैसे आज उन्हें छोड़ा तो समुद्र में डूब जाऊंगी या सैकड़ों फिट से ज़मीन पर गिर जाउंगी। इतनी रुहानी खुशियां दीं थीं उनकी संगत ने कि लगता था उनसे बिछड़ी तो रूह उनके साथ ही रह जाएगी। आखिर उनके संकोची हाथ सख्त होने लगे। उन्होंने एक झटके से मुझे खुद से छुड़ाया और...
पापा-मम्मी ने मेरे तथाकथित कमसिन उम्र के आकर्षण को भुलाने में ज़मीन-आसमान एक कर दिया। इताना नेह, इतना समय, कहीं और मन लगाने के इतने मार्गदर्शन कि इंसान के आंसू भी ग्लानि से भर पलकों में ही सिमट जाएं।
मम्मी-पापा को पूरा यकीन था कि एक हम उम्र साथी पाकर मेरे पलकों में सिमटे आंसू भी विलीन हो जाएंगे। अनीश सचमुच बहुत अच्छे इंसान हैं और मम्मी-पापा का ये सोचना सही भी था कि अच्छे इंसान मिलकर अच्छी ज़िंदगी बना ही लेते हैं। पर अच्छी ज़िंदगी और खुश ज़िंदगी एक ही होती है क्या? क्या ज़रूरी है कि जो हमउ म्र हो वो हमख्याल भी हो? अगर एक को पेड़ो के झुरमुट में दूर तक टहलते हुए किसी अलग सी चिड़िया को देख उसे कैमरे में कैप्चर करना खुश करता हो और दूसरे को रॉयल ड्रांग-रूम के सेपरेट बार में शीशे के छलकते जाम में कैप्चर होना। अगर एक को व्यावसायिक बातों के अलावा कोई भी दूसरी बातें करना होंठ थकाना लगे और दूसरे के पास खुशनुमा बातों का अनवरत झरना हो तो? अगर एक दूसरे की शिद्दतें एक दूसरे के लिए पागलपन हों और ख्वाहिशें सनक हों तो? अगर हमारी गृहस्थी दिल की बातें करने का नियम बना पाई होती तो भी क्या दोस्त को अपने खतों में दिल उड़ेलकर भेजा करती? उनके उत्तरों का इंतज़ार मन में पुलक क्यों भरा करता? उनके वीडियोज़ और मैसेज के लिए अलग ट्यून क्यों रखती और वो ट्यून क्या दिल की धड़कन से मिलती लगती? क्या तब भी उनकी भेजी सीपियां मेरे दिल का सबसे करीबी संग्रह होता?
..दोस्त ने हमेशा भाषा की गरिमा बनाकर और बनवाकर रखी। हमारे रिश्ते को ‘मेरी कलाओं की वारिस’ नाम देकर मेरी ख्वाहिशें हमेशा पूरी करते रहे। उपहारों से, जो भी मैं करना चाहती थी उसमें सहयोग से, मार्गदर्शन से..लेकिन जब भी उनसे शादी के लिए कहती तो वे मज़ाक में बात टाल देते। हमेशा कहते किसी परी से प्यार करते थे जो उड़ गई...
ये क्या? ये तो टैक्सी सागर के किनारे-किनारे दोस्त के घर की ओर जा रही है। मैं जैसे सात साल की उम्र में पहुंच जाती हूं। मैं दोस्त के साथ रेत का महल बना रही हूं। ऐसी बाड़..ऐसा लॉन..ऐसा बगीचा..ऐसा घर..
टैक्सी रुकती है और सामने बिल्कुल वैसा ही घर खड़ा है। मेरे एहसास समुद्र बन गए हैं..ऊपर से शांत और भीतर से..पर ये कौन लोग हैं? वकील? क्या कर रहे हैं यहां।
“यहां-यहां हस्ताक्षर करना है। कहकर मेरे सामने डाक्यूमेंट्स रखे गए। मेरे चेहरे पर उगे प्रश्नो के उत्तर देते हुए वकील ने खुलासा किया – “वो अपना सब कुछ अपनी कलाओं की वारिस यानी आपके नाम कर गए हैं।”
लगा एक बार फिर उन्होंने झटके से मुझे खुद से अलग कर दिया है। मेरे आंसू फिर सागर बन गए थे। अंदर ही अंदर हिलोरें लेती टीस के बीच उनके आखिरी खत पर नज़र पड़ी।
मेरी आखिरी ख्वाहिश पूरी करोगी न? समय मिलने पर नहीं, समय निकालकर यहां आया करो और अपनी ज़िंदगी अपने ढंग से जी लिया करो। निर्द्वंद्व, आनंद्विभोर.. यकीन मानो मैं जिस भी दुनिया में रहूं, तुम्हारे चेहरे पर सच्ची खुशी देखकर आनंद-विभोर होता रहूंगा।
- भावना प्रकाश
E-इश्क के लिए अपनी कहानी इस आईडी पर भेजें: db.women@dbcorp.in
सब्जेक्ट लाइन में E-इश्क लिखना न भूलें
Copyright © 2022-23 DB Corp ltd., All Rights Reserved
This website follows the DNPA Code of Ethics.