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डाउनलोड करेंपूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर बलिया के इब्राहिम पट्टी गांव के एक सामान्य परिवार से थे। गांव की पीड़ा और बेबसी को बखूबी समझते थे। उससे छुटकारा दिलाने के लिए राजनीति में उतरे और संघर्ष किया। सांसद बने तो संघर्ष और बढ़ गया। लेकिन इस दौरान उनके अंदर जो गांव बसा था वह नहीं निकल सका। संकोच उन्हें घेरे रहता था।
राजनीति के किरदार और किस्से की सीरीज में आज बात चंद्रशेखर के पहली बार सांसद बनने के बाद दिल्ली पहुंचने से जुड़ी है। आइए शुरू करते हैं।
चुनाव लड़कर नहीं बल्कि मनोनीत होकर सांसद बने थे चंद्रशेखर
चंद्रशेखर 1951 में बीए की पढ़ाई पूरी करने के बाद बलिया से इलाहाबाद आ गए। यूनिवर्सिटी में एडमिशन लिया लेकिन पढ़ाई से ज्यादा राजनीति में मन लग गया। समाजवाद के पक्के समर्थक थे इसलिए प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से जुड़ गए। आचार्य नरेंद्र देव और राम मनोहर लोहिया से राजनीति सिखी। आंदोलन से जुड़कर जनता के हितों को लेकर संघर्ष शुरू किया।
चंद्रशेखर की सक्रियता देखकर पार्टी ने 1955 में इन्हें महामंत्री बना दिया। चंद्रशेखर ने संगठन की मजबूती के लिए जमकर यात्राएं की। गांव-गांव घूमकर पार्टी के लिए कार्यकर्ता तैयार किए। 1962 में पहली कामयाबी मिली और चंद्रशेखर राज्यसभा के जरिए सांसद बना दिए गए।
अशोका होटल में जाने से डर लगता था
चंद्रशेखर सांसद बने तो उनका दिल्ली आना भी शुरू हो गया। अपनी आत्मकथा 'जीवन जैसा जिया' में चंद्रशेखर लिखते हैं, "मैंने कभी सोचा नहीं था कि मैं संसद सदस्य बन पाऊंगा। जब मैं पहली बार सांसद बनकर दिल्ली पहुंचा तो बहुत घबराया हुआ था। मुझे अशोका होटल में जाने से डर लगता था। यह डर किसी और बात को लेकर नहीं बल्कि वहां के कांटा चम्मच को लेकर था।"
चंद्रशेखर कहते थे कि मेरे दिमाग में यह बात हमेशा चलती रहती थी कि मैं कांटा वाले चम्मच को गलत तरीका से पकड़ लूंगा तो लोग क्या कहेंगे? लेकिन मैं कुछ दिन में ही यह सब सीख गया था। और सहज होकर अशोका होटल में जाने लगा था।
चंद्रशेखर को लगता था हमेशा गंभीर चर्चा करते होंगे सांसद
पहली बार सांसद बने चंद्रशेखर के अंदर हर कुछ जानने की उत्सुकता रहती थी। उन्हें लगता था कि जब सांसद आपस में मिलते होंगे तो गंभीर मुद्दों पर चर्चा करते होंगे। समस्याओं को हल करने के लिए विचार-विमर्श करते होंगे। लेकिन तीन महीने इतने सांसदों के यहां आयोजित पार्टी में गए कि चंद्रशेखर को पता चल गया कि वह गलत सोचते थे।
चंद्रशेखर ने कहा, "सांसदों ने घर की सुंदरता पर अधिक जोर दिया था। दीवार और सोफे का कलर मैच करता रहता था। पर्दे भी इस हिसाब से लगते थे कि वह अलग न लगे। पार्टी के दौरान किसी मुद्दे पर बात नहीं होती थी। एकबार तो मैने कह दिया कि आपके सामने और कोई विषय नहीं है क्या? क्या जीवन में यही उद्देश्य है? कला और सौंदर्य का अपना महत्व है लेकिन राजनीति यही है क्या? असल में मैं जिस जमीन से आया था वहां इसका कोई महत्व नहीं था।"
चंद्रशेखर को नीतियों और कामों की खूब जानकारी रहती थी। इसका एक उदाहरण भारत आए विदेशी प्रोफेसर के सवालों पर जवाब से पता चलता है।
शरणार्थियों की समस्या पर शोध करने वाले प्रोफेसर भारत दौरे पर
पत्रकार रामबहादुर राय अपनी किताब रहबरी के सवाल में लिखते हैं, "बांग्लादेश के युद्ध के बाद युगोस्लाविया के एक प्रोफेसर दिल्ली आए। वे पूरी दुनिया में शरणार्थियों की समस्या पर शोध कर रहे थे। भारत आए तो उन्होंने चंद्रशेखर से बहुत सवाल पूछे।" चंद्रशेखर बताते हैं कि मुझे 30 साल बाद भी प्रोफेसर के दो सवाल याद रहे।
सवाल 1: यहां की नौकरशाही को लेकर क्या राय है?
सवाल 2: गरीबी हटाने का नारा आप लोगों ने दिया फिर गरीबी क्यों नहीं हटी?
अब पहले सवाल का जवाब जानते हैं
जवाब 1: नौकरशाही को लेकर चंद्रशेखर ने कहा, "इससे अच्छा कोई तंत्र नहीं है, बस शर्त ये है कि उन्हें स्पष्ट रूप से गंतव्य और दिशा का निर्देश दिया जाए और स्वतंत्रता दी जाए। कठिनाई यह है कि हम लोग उन्हें स्पष्ट निर्देश नहीं देते और हम उनसे अपने अनुसार काम कराना चाहते हैं।" चंद्रशेखर के इस जवाब से प्रोफेसर चौक गए। चंद्रशेखर ने आगे बताया कि इस इस देश में 32 महीने के अंदर 1 करोड़ शरणार्थी आए लेकिन बिना किसी हिंसा के वह वापस चले गए।
अब दूसरे सवाल की बात करते हैं
जवाब 2: गरीबी हटाने के नारे को लेकर चंद्रशेखर ने प्रोफेसर से सवाल पूछा, "आप दुनिया के देशों में लगातार घूमते रहते हैं, क्या कोई ऐसा एक व्यक्ति बता सकते हैं जिसने बिना गरीबी का अनुभव किए गरीबी मिटाने का प्रयास किया हो?" प्रोफेसर थोड़ी देर चुप रहे और फिर मार्शल टीटो का नाम लिया। चंद्रशेखर ने कहा, आपने सही कहा लेकिन टीटो भी उस दिशा में कदम उठाने से पहले 10 साल तक हिटल के विरुद्ध संघर्ष में बेबसी का अनुभव कर चुके थे। महात्मा गांधी के साथ अफ्रीका में भेदभाव हुआ, उससे प्रेरणा लेकर गरीबों की जिंदगी से जुड़ गए।
चंद्रशेखर ने आखिर में बहुत जरूरी बात कही थी, “महात्मा बुद्ध को असली ज्ञान तब हुआ जब सुजाता की खीर खाने के लिए मजबूर होना पड़ा। भूख की पीड़ा को समझे बिना कोई भूख नहीं मिटा सकता। हम लोगों ने महसूस किया है और इस दिशा में काम करके रहेंगे।"
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