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डाउनलोड करेंवाराणसी के रहने वाले डॉ. सुबोध कुमार सिंह का बचपन गरीबी और संघर्षों में बीता। 13 साल की उम्र में पिता का साथ छूट गया। सड़कों पर साबुन और अगरबत्ती बेचने पड़े, लेकिन उन्होंने हौसला नहीं खोया। तमाम तकलीफों और मजबूरियों के बावजूद उन्होंने गवर्नमेंट स्कूल-कॉलेज से पढ़ाई की और एक कामयाब प्लास्टिक सर्जन बने।
डॉ. सिंह कामयाबी के बाद भी अपना संघर्ष नहीं भूले। उन्होंने अब तक करीब 37,000 बच्चों की फ्री क्लेफ्ट सर्जरी (Cleft Surgery) की है। इतना ही नहीं डॉ. सिंह दुनिया में सबसे ज्यादा और सबसे कम समय में क्लेफ्ट सर्जरी करने के लिए भी फेमस हैं। उनकी लाइफ पर बेस्ड डाक्युमेंट्री फिल्में भी बनी हैं। ‘स्माइल पिंकी’ नाम की डाक्युमेंट्री को ऑस्कर अवार्ड से नवाजा गया है। उनमें सुबोध कुमार के काम को दिखाया गया था। वे देश के पहले डॉक्टर हैं जिन्हें रेड कारपेट पर चलने का मौका मिला।
आज की खुद्दार कहानी में जानेंगे डॉ. सुबोध कुमार सिंह के संघर्ष की कहानी के बारे में...
प्लास्टिक सर्जन बनने का सपना था
55 साल के डॉ. सुबोध कुमार सिंह ने आर्म्ड फोर्सेस मेडिकल कॉलेज (AFMC, पुणे), बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU-PMT) और उत्तर प्रदेश राज्य संयुक्त प्री-मेडिकल टेस्ट (CPMT) एक साथ पास किया। फिर BHU से मेडिकल की पढ़ाई पूरी की।
BHU से MBBS और MS करने के बाद 1993 में उन्होंने सुपर स्पेशलाइजेशन इन प्लास्टिक सर्जरी (M.Ch.) की पढ़ाई पूरी की। 1994 से वो बतौर एक प्लास्टिक सर्जन की प्रैक्टिस कर रहे हैं। सर्जरी की शुरुआत उन्होंने बर्न (जले हुए) पेशेंट्स से की। इसके बाद कैंसर पेशेंट्स के लिए भी बहुत काम किए।
2004 में अपने पिता को श्रद्धांजलि देने की भावना से उन्होंने ‘G.S.Memorial Plastic Surgery Hospital And Trauma Center’ नाम से एक छोटा सा हॉस्पिटल ओपन किया। अब तक इस हॉस्पिटल में हजारों फ्री क्लेफ्ट बर्न सर्जरी हो चुकी है।
दैनिक भास्कर से बात करते हुए डॉ. सुबोध कहते हैं, “मेडिकल की पढ़ाई के दौरान से ही मेरा सपना प्लास्टिक सर्जन बनने का था और जितना हो सके उतना लोगों की मदद करने का। मैं लकी हूं कि डॉक्टर बनकर समाज में जरूरतमंद लोगों के लिए कुछ कर पा रहा हूं।”
बचपन के पन्नों को पलटते हुए खुद पर गर्व होता है
सुबोध जब 13 साल के थे तब उनके पिता की मौत हो गई। इसके बाद उनकी मां भी बीमार रहने लगीं। घर में आमदनी का कोई और सोर्स नहीं था। लिहाजा सुबोध ने सड़कों पर साबुन, अगरबत्ती जैसे कई सामान बेचे। कई बार तो दुकानों पर भी छोटी-मोटी नौकरी की। पैसों की कमी के कारण हालत इतनी खराब थी कि उनके भाइयों को घर चलाने के लिए पढ़ाई छोड़नी पड़ी। इन सबके बावजूद उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए हर संभव कोशिश की।
डॉ. सुबोध बताते हैं, “मैं जब अपने बचपन के बारे में सोचता हूं तो लगता है वो समय कैसे निकला होगा, लेकिन बचपन में मैं आम बच्चों जैसा ही था। मेरा पढ़ाई की तरफ काफी रुझान रहा। इसके लिए मेरे भाइयों ने बहुत सपोर्ट किया। उनकी मेहनत और त्याग बेकार न जाए, इसलिए मैं कड़ी मेहनत करता रहा। दसवीं कक्षा की परीक्षाओं के दौरान मैंने एक जनरल स्टोर में भी काम किया। इसके अलावा मां की मदद के लिए पढ़ाई के साथ घर पर खाना भी बनाता था। हमारी मां काफी बीमार रहती थीं, इसलिए घर चलाने की जिम्मेदारी हम भाइयों के कंधों पर थी।”
सुबोध के पिता रेलवे में क्लर्क थे। उनके देहांत के बाद, बड़े भाई को मुआवजे के तौर पर नौकरी मिली, लेकिन भाई को मिलने वाली ज्यादातर सैलरी कर्ज चुकाने में चली जाती थी। घर चलाना मुश्किल था।
शुरुआत बर्न पेशेंट की सर्जरी से हुई
डॉ. सुबोध पढ़ाई के बाद 1994 से बर्न पेशेंट्स की सर्जरी करने लगे। 1997 में वाराणसी के प्राइवेट हॉस्पिटल में उन्होंने एक बर्न यूनिट ओपन किया जिसे कुछ कारणों से बंद करना पड़ा। फिर उन्होंने अपने ही हॉस्पिटल में एक बर्न यूनिट तैयार कराया। जहां किसी हादसे में जल गए लोगों को एडमिट कर उनका इलाज किया जाता है। फिर प्लास्टिक सर्जरी की मदद के बॉडी पार्ट को फिर से बनाया जाता है।
सर्जरी के खर्च के बारे में पूछने पर सुबोध बताते हैं, “इन सर्जरी में काफी पैसा लगता है, जिसके लिए कई NGO हमारी मदद करते हैं। हॉस्पिटल मेरा अपना है इसलिए कई खर्च बच जाते हैं। सर्जरी में लगने वाली दवाइयों और दूसरी जरूरतें NGO की मदद से पूरी हो जाती हैं।
सबसे पहले वंडरवर्क (WonderWork) नाम की एक इंटरनेशनल ऑर्गेनाइजेशन ने हमारी मदद की। उनके साथ मिल कर हमने करीब 6000 से ज्यादा बर्न पेशेंट्स की सर्जरी की। इसके अलावा आयुष्मान भारत योजना, शाहरुख खान का मीर फाउंडेशन और अतिजीवन फाउंडेशन सहित कई और NGO हमारे साथ जुड़े हैं। इस तरह कई लोग हमारी मदद करते हैं और हम जरूरतमंद लोगों की सर्जरी फ्री में करते हैं।”
बर्न पेशेंट्स के अलावा डॉ. सुबोध ने कई कैंसर पेशेंट्स की सर्जरी की। जैसे अगर किसी को मुंह का कैंसर है तो हो सकता है उसकी जुबान, गाल या जबड़ा निकालना पड़े। ऐसे में कैंसर का ऑपरेशन करने के बाद उन पेशेंट्स को ऐसे नहीं छोड़ा जा सकता। फिर से उसी अंग को प्लास्टिक सर्जरी की मदद से बनाया जाता है। जो प्लास्टिक सर्जन का काम होता है। 1994 से 2006 तक उन्होंने भारतीय रेलवे कैंसर रिसर्च संस्थान ( जो कि अब होमी भाभा कैंसर हॉस्पिटल एवं रिसर्च संस्थान है), में 1000 से अधिक कैंसर पेशेंट्स की रिकंस्ट्रक्शन सर्जरी की। जिसके लिए डॉक्टर सुबोध को मात्र चार हजार रूपए महीना मिलता था, जो कि बहुत कम फीस थी।
इन पर मूवी बनी और ऑस्कर अवार्ड भी मिला
डॉ. सुबोध अपने हॉस्पिटल में कई फ्री कैंप पेशेंट्स के लिए ऑर्गनाइज करते रहे हैं । 2004 उन्होंने पहली बार फ्री क्लेफ्ट सर्जरी कैंप ऑर्गेनाइज किया, जिसमें 135 पेशेंट्स रजिस्टर हुए। जो क्लेफ्ट के लिहाज से एक बड़ा नंबर था। उसी कैंप में ‘स्माइल ट्रेन’ (Smile Train) नाम की इंटरनेशनल NGO के साउथ-एशियन डायरेक्टर सतीश कालरा भी आए। ज्यादा पेशेंट्स को देख उन्होंने डॉ. सुबोध के साथ जुड़ कर काम करने की इच्छा जताई जिसे डॉ. सुबोध ने स्वीकार कर लिया।
इस तरह वो 2004 से स्माइल ट्रेन के साथ मिल कर काम करने लगे। डॉ. सुबोध कहते हैं, “2004 से अब तक हमने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। उसी साल हमने करीब 500 क्लेफ्ट सर्जरी की। इसके बाद 2005 तक 2500 सर्जरी की। 2006 के अंत तक हम दुनिया में सबसे ज्यादा क्लेफ्ट सर्जरी करने के लिए पहचाने जाने लगे।
जब ये लोगों को पता चला कि भारत में वाराणसी जैसी जगह में इतनी बड़ी मात्रा में क्लेफ्ट सर्जरी होती है। तो मेरे काम पर ‘स्माइल पिंकी’ नाम की एक डॉक्युमेंट्री बनी। जिसे ऑस्कर अवॉर्ड समेत कई पुरस्कार मिले हैं। मैं भारत का पहला डॉक्टर हूं जो रेड कारपेट पर चला हूं (हंसते हुए कहते हैं)।”
डॉ.सुबोध की लाइफ पर नेशनल जियोग्राफिक ने भी ‘बर्न गर्ल रागिनी’ नाम की 5 मिनट की डॉक्युमेंट्री बनाई है। इसमें एक जली हुई लड़की की बिफोर एंड आफ्टर सर्जरी लाइफ को दिखाया गया है। ये फिल्म इंटरनेट पर काफी पॉपुलर हुई, बाद में नेशनल जियोग्राफिक की एडिटर्स चॉइस में भी इसका नाम शुमार हुआ, AIB सहित कई अवार्ड भी मिले। स्माइल पिंकी अब तक की सबसे पॉपुलर मेडिकल डॉक्युमेंट्री है जो वर्ल्ड के कई देशों में देखी गई है।
अब तक 37 हजार बच्चों की फ्री सर्जरी
डॉ. सुबोध अब तक 37,000 बच्चों की फ्री सर्जरी कर चुके हैं और 25,000 परिवारों को इसका लाभ पहुंचा है। वो बताते हैं, “जो बच्चे क्लेफ्ट लिप के साथ पैदा होते हैं उन्हें स्तनपान कराने में मुश्किल होती है। अच्छे से दूध न पीने के कारण उनकी ग्रोथ रुक जाती है। इन बच्चों को ढंग से बोलने में भी तकलीफ होती है। इसके अलावा कई बार इनके कान में भी इन्फेक्शन हो जाता है, इसलिए उनकी सर्जरी बहुत जरूरी होती है।”
अपने काम करने के ढंग के बारे में बताते हुए डॉ. सुबोध कहते हैं, “सर्जरी के लिए सबसे पहले बच्चों का चेकअप होता है, डाइटीशियन बच्चे और मां को सही खानपान की सलाह देते हैं। इसके लिए बच्चे का वजन और अहार चार्ट बनाया जाता है। सर्जरी के बाद उन्हें सावधानी बरतनी होती है। इस दौरान स्पीच थेरेपी और अन्य मेडिकल सहायता के साथ हर समय बेहतर देखभाल की जरूरत होती है।”
सुबोध के अनुसार कटे होंठ वाले बच्चों को सोशल इनजस्टिस झेलना पड़ता है। ये बच्चे अक्सर दूसरों के रवैये से तंग आकर स्कूल छोड़ देते हैं। उन्हें नौकरी ढूंढने और पाने में भी काफी मुश्किलें आती हैं। सर्जरी इन सभी समस्याओं से निजात दिला सकती है।
एक लाख से ज्यादा पेड़ भी लगा चुके हैं
डॉ. सुबोध सिर्फ सर्जरी ही नहीं बल्कि कई सोशल वर्क में भी हिस्सा लेते हैं। उनका मानना है कि सोसाइटी और नेचर ने हम सबको बहुत कुछ दिया है। एक समय के बाद हमें भी उनके लिए बदले में कुछ करना चाहिए।
सुबोध लोगों को पेड़ लगाने के लिए प्रेरित करते हैं। अब तक वो खुद एक लाख से ज्यादा पेड़ लगा चुके हैं। वे बताते हैं, “हमारे हॉस्पिटल का एक नियम है जो भी पेशेंट ठीक हो कर वापस घर जाता है, उस समय हम उसको एक पौधा गिफ्ट करते हैं। इससे उनमें भी पेड़ लगाने की भावना जागती है। अब तक हमने हजारों पेशेंट्स को पौधे गिफ्ट किए होंगे।”
वे कहते हैं, “शायद मैंने अपने जीवन में बहुत पैसा नहीं कमाया है, लेकिन प्यार बहुत कमाया हूं। मेरे पास प्यार का बैंक बैलेंस जितना है, उतना कम ही लोगों के पास होता है। मैं भगवान का शुक्रगुजार हूं जिसने मुझे इतने अवसर और लोगों का साथ दिया। मैं आगे भी इसी तरह समाज के लिए काम करता रहूंगा।”
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